Jaisalmer Darpan Kadhai: राजस्थान के रंग-बिरंगे और जीवंत हस्तशिल्प राज्य की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर का एक जीवंत प्रतिबिंब हैं। इनमें से एक विशेष हस्तशिल्प है जैसलमेर की दर्पण कढ़ाई। अपनी आकर्षक शैली और खूबसूरती के लिए विश्वभर में प्रसिद्ध, यह शिल्प मूल रूप से फारस से आया है और राजस्थानी संस्कृति में गहराई से जड़ें जमा चुका है।

कला का इतिहास

लोक-कथा के अनुसार, दर्पण कढ़ाई की उत्पत्ति 13वीं शताब्दी में फारस में हुई थी और यह मुगलों के माध्यम से भारत आई। प्रारंभ में, कढ़ाई में अभ्रक के टुकड़ों का उपयोग किया जाता था, जो बाद में कांच के दर्पणों से बदल दिए गए, क्योंकि अभ्रक बहुत भंगुर होता है और टूट-फूट को सहन नहीं कर सकता। आमतौर पर गोल आकार के दर्पण के टुकड़े कपड़े की चादरों में कढ़ाई किए जाते हैं, जिन्हें बाद में आवश्यक आकार में काटा जाता है।

आखिर क्यों है सबसे खास?

राजस्थानी कढ़ाई करने वाले कारीगर टाई-एंड-डाई और एप्लीक जैसी अन्य शैलियों के साथ दर्पण कढ़ाई को जोड़कर अपनी कला में विविधता लाते हैं। इसका परिणाम एक बेहतरीन परिधान होता है, जिसकी देश और विदेश दोनों में काफी मांग है। कंजरी (एक बैकलेस ऊपरी परिधान) में कढ़ाई और दर्पण के टुकड़ों की कटाई और स्थिति न केवल राजस्थान के स्थानीय बाजारों में प्रसिद्ध है, बल्कि इसका एक बड़ा हिस्सा यूरोपीय देशों को भी निर्यात किया जाता है।

जैसलमेर के साथ-साथ बीकानेर और सीकर भी मिरर कढ़ाई के लिए प्रसिद्ध हैं। हालांकि, इस कला का उपयोग केवल कपड़ों तक सीमित नहीं है। राजस्थानी कारीगर रोजमर्रा की वस्तुओं के साथ-साथ संग्रहणीय और स्मृति चिन्ह बनाने के लिए भी मिरर कढ़ाई का सहारा लेते हैं। यहां तक कि ऊंट की काठी पर भी अक्सर इस तकनीक का उपयोग किया जाता है।

बनने की प्रक्रिया 

कपड़ों के टुकड़ों को जोड़कर एक बड़ा कपड़ा बनाना राजस्थान की विशेषताओं में से एक है। ये रजाईयाँ कई विवरणों के साथ डिज़ाइन की जाती हैं और छूने में नरम तथा पंख जैसी होती हैं। विभिन्न आकारों के दर्पण इन रजाईयों के डिज़ाइन और पैटर्न को और भी आकर्षक बनाते हैं। सिलाई इतनी मजबूत होती है कि एक ही रजाई में हजारों चमकते दर्पण समा सकते हैं। विस्तृत कढ़ाई और दर्पणों का अद्भुत प्रयोग एक साधारण रजाई को बेशकीमती वस्तु में बदल देता है। दर्पण से सजी रजाई एक अद्वितीय उपहार बन सकती है, जो परंपरा और विशिष्टता का प्रतीक है।