Rajasthan History: राजस्थान के बाड़मेर में स्थित 56 पहाड़ियों में से हल्देश्वर पहाड़ी पर भारत का एक ऐसा दुर्ग मौजूद है जिसे कभी जीता नहीं जा सका। अपनी अभेद्यता की वजह से यह दुर्ग राजस्थान के इतिहास का बहुत ही गौरवशाली दुर्ग माना जाता है। आइए जानते हैं यह दुर्ग क्यों खास है और क्यों आज तक इसे कोई जीत नहीं सका।

इस दुर्ग की स्थापना

अपने गौरवशाली इतिहास के लिए मशहूर इस दुर्ग की स्थापना आज से लगभग 1000 साल पहले हुई थी। इतिहासकारों की मानें तो सिवाना दुर्ग की स्थापना दसवीं शताब्दी के आसपास राजा भोज के पुत्र वीर नारायण परमार के द्वारा की गई थी। प्रारंभ में इसका नाम कुंभाना दुर्ग था, जो बाद में सिवाना दुर्ग बन गया।

इसके अतिरिक्त, बिना सिवाना दुर्ग को जीते जालौर को जीत पाना असंभव था, इसीलिए इसे "जालोर की कुंजी" के नाम से भी जाना जाता है। इतिहास में इसे मारवाड़ राजाओं की शरण स्थली भी कहा जाता है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

12वीं शताब्दी की शुरुआत में यह दुर्ग सोनगरा चौहानों के अधिकार में था। उन्होंने विदेशी आक्रमणकारियों जैसे कुतुबुद्दीन ऐबक और अलाउद्दीन खिलजी का खुलकर विरोध किया था। वर्ष 1308 ईस्वी में सिवाना दुर्ग पर सातलदेव सोनगरा चौहान का शासन था। सातलदेव ने अपने चाचा कान्हड़देव, जो जालौर के शासक थे, के साथ मिलकर अलाउद्दीन खिलजी का डटकर मुकाबला किया और जीत हासिल की।

लेकिन अलाउद्दीन खिलजी ने वर्ष 1310 में फिर से एक बड़ी सेना के साथ सिवाना दुर्ग पर आक्रमण किया। बताया जाता है कि इस दुर्ग का पहला जौहर इसी समय हुआ था। कहा जाता है कि हार स्वीकारने के बजाय सातलदेव ने जौहर की आग में कूदकर वीरगति प्राप्त की थी।

अकबर बनाम चंद्र सेन

अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु के बाद सिवाना दुर्ग फिर से राजपूतों के कब्जे में आ गया। 1538 में मालदेव ने सिवाना दुर्ग पर आक्रमण करके इसे अपने कब्जे में ले लिया। इसके बाद मालदेव के पुत्र चंद्रसेन ने सिवाना दुर्ग को केंद्र बनाकर मुगल बादशाह अकबर के खिलाफ लंबे समय तक युद्ध किया, लेकिन अंततः अकबर की यहां जीत हो गई।

खिलजी ने इस दुर्ग को छल से जीता

बताया जाता है कि सिवाना दुर्ग को जीत पाना किसी भी मुगल शासक के लिए आसान नहीं रहा। अलाउद्दीन खिलजी को सिवाना को जीतने के लिए छल का सहारा लेना पड़ा, वहीं अकबर ने भी कूटनीतिक चालों के जरिए इस दुर्ग पर आधिपत्य जमाया।

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