Achaleshwar Mahadev: भारत में कई ऐसे मंदिर हैं जिनके बारे में अलग-अलग मान्यताएं हैं। इसके अलावा, कई ऐसे भी मंदिर हैं जो अपने चमत्कारिक प्रभाव के लिए जाने जाते हैं। इन्हीं में से एक है राजस्थान के माउंट आबू में स्थित अचलेश्वर महादेव मंदिर। ऋषि वशिष्ठ की तपस्थली माउंट आबू के अचलगढ़ में स्थित यह मंदिर अपने इतिहास में कई बड़े रहस्यों को समेटे हुए है।

यह मंदिर बेहद अनूठा माना जाता है, क्योंकि यहां महाकाल के दाहिने पैर के अंगूठे की पूजा की जाती है। लोगों के मन में इस मंदिर को लेकर यह मान्यता है कि इस पर्वत को स्वयं महाकाल ने अपने दाहिने अंगूठे से पकड़ रखा है। इसके अलावा, स्कंद पुराण में भी इस मंदिर का विवरण मिलता है।

क्या है मंदिर का इतिहास और इससे जुड़ी मान्यताएं

पश्चिमी राजस्थान के सिरोही जिले में स्थित अचलेश्वर महादेव मंदिर अपने इतिहास में कई बड़े रहस्यों को समेटे हुए है। माना जाता है कि पौराणिक काल में यहां एक गहरी खाई हुआ करती थी, जिसमें ऋषि वशिष्ठ की सभी गाय गिर जाया करती थीं। इस समस्या को लेकर ऋषियों ने देवताओं से गुहार लगाई कि इस खाई को पाट दिया जाए ताकि ऋषि आश्रमों में पल रही गायों का जीवन बच सके। देवताओं ने ऋषियों के आग्रह पर नंदी वर्धन को आदेश दिया कि वह इस खाई को पाट दे।

इस खाई को पाटने के लिए जिस पर्वत का उपयोग किया गया, उसे अर्बुद नामक सांप ने अपनी पीठ पर उठा रखा था। इस पर अर्बुद को घमंड हो गया कि उसने पूरा पर्वत अपनी पीठ पर उठा रखा है और फिर भी उसे महत्व नहीं मिल रहा। इस अहंकार के कारण अर्बुद हिलने लगा और पर्वत में कंपन होने लगा। इसके पश्चात महादेव ने अपने भक्तों की पुकार सुनकर अपने अंगूठे से पर्वत को स्थिर किया और अर्बुद का घमंड भी चूर-चूर कर दिया।

माउंट आबू को अर्ध काशी कहा जाने का रहस्य

पर्वत को अचल करने के कारण ही इस स्थान का नाम अचलगढ़ पड़ा। इसके अलावा, यह माना जाता है कि मंदिर में जो अंगूठे के आकार की प्रतिमा लगी हुई है, वह शिव के दाहिने पैर का अंगूठा है। महादेव के इतने उपकारों के कारण माउंट आबू को अर्धकाशी के नाम से भी जाना जाता है। यह भी मान्यता है कि जिस गोल पत्थर की शिव के दाहिने पैर के अंगूठे के तौर पर पूजा की जाती है, वह पत्थर गर्भगृह के एक कुंड से ही निकला हुआ है।

यहां के गर्भगृह को लेकर मान्यता है कि इसका कोई अंत नहीं है। यहां के पुजारी बताते हैं कि अर्बुद के अहंकार को तोड़ने के लिए जब काशी विश्वनाथ ने अपने अंगूठे से अर्बुदांचल पर्वत को स्थिर किया, तब से ही यहां अचलेश्वर महादेव के रूप में शिव के अंगूठे की पूजा अर्चना प्रारंभ हो गई।

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