Holi 2025:क्या आप जानते हैं कि बिश्नोई समाज द्वारा होली दहन नहीं किया जाता है। यहां तक की समाज के परिवार के लोग उसकी लौ भी नहीं देखते हैं। इसके पिछे का कारण है पेड़ और वन्यजीवों के प्रति उनका प्रेम। पर्यावरण संरक्षण और अपनी आस्था के चलते होली दहन नहीं किया जाता है। इसके पिछे एक और कारण है, माना जाता है कि यह आयोजन भक्त प्रहलाद को मारने के लिए किया गया था। भगवान विष्णु ने 12 करोड़ जीवों के उद्धार के लिए कलयुग में भगवान जांभोजी के रूप में अवतरित हुए थे। बिश्नोई समाज खुद को प्रहलाद पंथी मानते है इसी कारण से सदियों से होली दहन नही देखने की परंपरा चलती आ रही है।
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होली का पाहल (कलश) करना होता है जरूरी
होलिका जब दहन से पहले प्रहलाद को गोद में लेकर बैठती है, तभी से समाज में शोक मनाना शुरू हो जाता, सुबह प्रहलाद के सुरक्षित लौटने और होलिका दहन के बाद ही बिश्नोई समाज खुशी मनाता है। लेकिन इस दौरान कोई किसी पर रंग नहीं डालते है क्योंकि बिश्नोई समाज के मुताबिक प्रहलाद भगवान विष्णु के भक्त थे।
भगवान विष्णु के अवतार थे भगवान जंभेश्वर
बिश्नोई पंथ के प्रवर्तक भगवान जंभेश्वर भगवान विष्णु के ही अवतार थे। जानकारी के अनुसार कलयुग में संवत 1542 कार्तिक कृष्ण पक्ष अष्टमी कलश की स्थापना कर भगवान जंभेश्वर ने पवित्र पाहल पिलाकर बिश्नोई पंथ तैयार किया था। वहीं जांभाणी साहित्य के मुताबिक तब के प्रहलाद पंथ के अनुयायी ही आज के समय के बिश्नोई समाज के लोग हैं। बिश्नोई समाज भगवान विष्णु को अपने आराध्य के रूप में पूजते हैं। माना जाता है जो लोग घर में पाहल नहीं करते हैं, वे मंदिर में जाकर पाहल से पवित्र जल लाते है और फिर उसे ग्रहण करते हैं।
सूर्यास्त से बनाया जाता है खिचड़ा
होली दहन से पहले शाम पर होलिका जब प्रहलाद को गोद में लेकर आग में बैठती है, तब प्रहलाद पंथी शोक मनाते है। शाम को सूर्यास्त होने से पहले बिश्नोई समाज के लोगों द्वारा खिचड़ा बनाया जाता है और उसके बाद सुबह खुशियां मनाई जाती। इसके बाद हवन पाहल ग्रहण करते है। मान्यता है कि प्रहलाद की वापसी पर हवन कर कलश की स्थापना की गई थी। साथ ही आगे चलकर हरिशचंद्र ने स्थापित प्रहलाद पंथ को त्रेता युग में पुन स्थापित किया था।