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राजस्थान के पुरुष की शान कहलाने वाले साफे का इतिहास काफी प्राचीन है। इसे पुरूष युद्ध, शादी, समारोह आदि के आधार पर अलग-अलग प्रकार के साफे पहनते हैं।

राजस्थान और उसके आस-पास के इलाकों में आपके ज्यादार पुरूषों को साफा बांधे देखा होगा। साफा पहनने की परंपरा काफी पुरानी है। इन साफा को पुरुषों खास दौर पर शादी या किसी त्योहार पर पहनते है। सफों में भी कई प्रकार के साफ दिखाई पड़ते है। हर किसी साफा की अलग विशेषताएं है। आज इस आर्टिकल में हम आपको साफा से जुड़ी सभी जानकारी देंगे।

सिर पर साफा बांधने की परंपरा राजपूत घराने से शुरू हुई थी, धिरे-धिरे समय के साथ साफो के अलग रंगों और पहनावे में भी अंतर आता चला गया। अलग-अलग समाज के लोग विभिन्न प्रकार के साफा पहनते है। इन साफो को किसी खास मौके पर भी पहना जाता है। जैसे यदि पुरुष युद्ध या अपने शौर्य का प्रचार करना चाहता है तो वह केसरिया रंग का साफा पहनते थे। वहीं अगर कोई शोक या किसी दुख की घड़ी में जा रहे है तो सफेद रंग का साफा पहनते थे। अगर किसी शादी समारोह में जाना होता था तो रंग बिरंगी बंधेज का साफा पहना जाता था, जिसे बावरा भी कहा जाता था।

बावरा का इतिहास

बावरा नामक साफा का इतिहास बेहद पुराना है। इस साफे को पहनने की रस्म राजपूत शासन से चली आ रही है। इस साफे को राजपूत राजा अपनी शान के तौर पर धारण करते थे। युद्ध के समय यह साफा ना केवल शान का प्रतीक था, बल्कि रणभूमि में आपात प्रहार के समय रक्षा करने के काम भी आता था।

विभिन्न प्रकार के साफे

राजस्थान के हर इलाके में पुरुष अलग-अलग प्रकार के साफे पहनते है। जैसे बिश्नोई समाज हमेशा सफेद साफा बांधते है। राईका समाज के पुरुष रेबाली लाल रंग का साफा पहनते है। वहीं लंगा समाज के लोग मांगणियार कालबेलिया के साफे बांधते हुए नजर आते है।

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