History of Kathputli: भारत में कठपुतलियों की परंपरा का इतिहास बहुत पुराना है। कठपुतली नृत्य को लोकनाट्य की एक विशेष शैली माना जाता है, जिसमें लेखन, गायन, चित्रकला, वेशभूषा, मूर्तिकला, काष्ठकला, और रूप-सज्जा जैसी कई कलाओं का समावेश होता है। धागे, लकड़ी, छड़, दस्ताने, प्लास्टर ऑफ पेरिस, रंग-बिरंगे कपड़े और अन्य सामग्रियों से बनी ये कठपुतलियां अपने आकर्षक रंग, रूप, डिज़ाइन और गतिशीलता से हर दर्शक के चेहरे पर एक नया भाव जागृत कर देती हैं। जयपुर के कठपुतली नगर में भी बड़े स्तर पर कठपुतली बनाने का कार्य होता है। यहां से कठपुतलियां देश विदेश तक भेजी जाती हैं।
कठपुतली का इतिहास
भारत में इस कला का सबसे पहला प्रमाण हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से मिलता है, जहां उत्खनन में सॉकेट युक्त कठपुतलियां पाई गई हैं। इसके बाद, लगभग 500 ईसा पूर्व कठपुतली रंगमंच के प्रमाण मिलते हैं। ईसा पूर्व चौथी सदी में लिखित पाणिनि के अष्टाध्यायी में 'नटसूत्र' खंड में 'पुतला' नामक नायक का उल्लेख किया गया है।
इसी तरह, पहली और दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व के तमिल ग्रंथ "शिलप्पादिकारम" में भी कठपुतलियों का वर्णन मिलता है। मनोरंजन के साथ-साथ इन कठपुतलियों का दार्शनिक महत्व भी है। भगवदगीता में कहा गया है कि ईश्वर के उंगलियों में इस ब्रह्मांड को नियंत्रित करने वाली कठपुतलियों की डोर बंधी हुई है। प्रसिद्ध कहानी "सिंहासन बत्तीसी" में राजा विक्रमादित्य के सिंहासन की बत्तीस कठपुतलियों का भी उल्लेख किया गया है।
राजधानी में बुरे हालात में जी रहे कठपुतली बनाने वाले
प्रदेश की राजधानी जयपुर में कठपुतली बनाने का कार्य कठपुतली नगर में होता है। यहां पर कठपुतली बनाने वालों के हालात कच्ची बस्ती में रहने वाले लोगों से भी बदतर हैं। इसके बावजूद कई परिवार आज भी इस कार्य में लगे हुए हैं। तंगगलियों में गंदगी और बदबू के बीच रह रहे परिवार न किसी से शिकायत कर पा रहे हैं और न जीवन जी पा रहे हैं। कठपुतली के कार्य में लगा मीना के परिवार का ने बताया कि कठपुतली का जोड़ा 100 रुपये में बिकता है। जिसमें से 60 रुपये इनको बनाने में खर्च हो जाते हैं। पूरे दिन में पूरा परिवार अधिकतम 10 कठपुतली बना पाता है। ऐसे में एक दिन की आमदनी 400 रुपये से ज्यादा नहीं है। लेकिन पुरखो की परंपरा को बचाने के लिए कठपुतली नगर में परिवार कठपुतली बनाने का काम कर रहे हैं।
विभिन्न प्रकार की कठपुतलियां
भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग प्रकार की कठपुतली परंपराएं विद्यमान हैं, जहां पौराणिक कहानियों को दर्शाने का कार्य किया जाता है। कठपुतली कला को चार प्रमुख श्रेणियों में बांटा जा सकता है: धागा कठपुतली, छाया कठपुतली, दस्ताना कठपुतली, और छड़ कठपुतली। धागा कठपुतली, जिसे मैरियोनेट भी कहा जाता है, भारतीय कठपुतली परंपरा में सबसे प्रचलित है।
कठपुतली बनाने की परंपरा
इन कठपुतलियों को बनाने के लिए पहले लकड़ियों को तराशा जाता है, फिर उन पर ऑइल पेंट से रंगाई की जाती है और मानवीय चेहरा दिया जाता है। इसके बाद, हाथ, सिर और शरीर के पीछे छेद किए जाते हैं, जिन्हें धागों से जोड़ा जाता है, और फिर कलाकार इन धागों के माध्यम से अपनी कला प्रस्तुत करता है। राजस्थान की पारंपरिक कठपुतली कला, ओड़िशा की कंढेई कठपुतलियां और कर्णाटक की गोम्बेयाटा कठपुतलियां धागा कठपुतली के प्रमुख रूप हैं।