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Tonk Ka Namda: टोंक का नमदा की कला मूल रूप से फारसी है। एक बार जब भारतीय शिल्पकारों ने इसे अपनाया, तो उन्होंने इसे अपने अनूठे तरीके से विकसित कर लिया।

Tonk Ka Namda: राजस्थान में स्थानीय स्तर पर लोकप्रिय टोंक का नमदा अब विदेशों में भी अपनी पहचान बना रहा है। इसकी मांग लगातार बढ़ती जा रही है। इस व्यापार से जुड़े लोगों का कहना है कि इसका वार्षिक कारोबार 25 करोड़ तक पहुंच गया है। हालांकि, कोरोना के दौरान कारोबार में गिरावट आई थी, लेकिन अब फिर से इसकी रौनक लौट रही है। इस उद्योग से लगभग 4,000 परिवार जुड़े हुए हैं। पुराने टोंक क्षेत्र के अधिकांश घरों में नमदा कारीगरी करते हुए लोग नजर आते हैं।

इस प्रकार तैयार की जाती है कारीगरी


नमदे पर कारीगरी बारीक सुई से की जाती है, जिसे बार-बार उत्पाद में इस तरह से चुबाया जाता है कि वह मनचाहा आकार ले ले। इस काम में महिलाएं विशेष रूप से कुशल होती हैं। अब युवाओं का भी इस क्षेत्र में रुचि बढ़ रही है। बड़ी संख्या में युवा इस व्यवसाय से जुड़ रहे हैं।
भेड़ की ऊन से बनाए जाने वाले नमदे से विभिन्न प्रकार के सामान तैयार किए जाते हैं। इसकी सबसे अधिक मांग दिसंबर में आने वाले क्रिसमस डे के समय होती है। इसकी तैयारियां अब से ही शुरू हो गई हैं। कारीगर जुलाई-अगस्त तक माल की आपूर्ति के लिए जुट रहे हैं। सर्दियों में पहनने वाले जूते और चप्पल अधिकांशतः स्थानीय बाजार में बिकते हैं, जबकि खिलौने आदि विदेशों में भेजे जाते हैं।

टोंक में नमदे का इतिहास:

कई शोधकर्ताओं का मानना है कि नमदे का अविष्कार चंगेज खां के समय, 1162 से 1227 ई. के बीच हुआ। यह एक प्राचीन कला है, जिसका प्रचलन भारत में मुगलकाल के दौरान शुरू हुआ। टोंक में नमदा बनाने का कार्य प्रथम नवाब अमीर खां के समय से शुरू हुआ। मुगलकाल में लाहौर, जयपुर, कश्मीर और आगरा जैसे स्थानों पर नमदा उद्योग का विकास हुआ, लेकिन कुछ जगहों पर यह कला लुप्त हो गई।

नमदा बनाना एक विशेष कला है। इसके डिजाइनिंग में भी कई संभावनाएं मौजूद हैं। व्यवसाय से जुड़े शानू खान ने बताया कि नमदे का काम सदियों से चला आ रहा है। पहले भेड़ की ऊन से बने नमदे का उपयोग आसनों, बारिश से बचने के लिए घूगी और सर्दी में मवेशियों की सुरक्षा के लिए ढली बनाने में किया जाता था। समय के साथ इसमें कई नवाचार किए गए हैं।

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