Sitamata Wildlife Sanctuary : सीतामाता वाइल्डलाइफ अभ्यारण चित्तोड़गढ़, उदयपुर से करीब 130 किलोमीटर दूर है। सीतामाता वाइल्डलाइफ सेंचुरी की क्षेत्र चित्तौड़गढ़ और प्रतापगढ़ में फैला हुआ है। यहां पर उड़ने वाली गिलहरियां पायी जाती हैं, जो कि वाइल्डलाइफ प्रेमियों के अंदर रोमांच पैदा करती है। इनकी लंबाई 1 मीटर तक होती हैं। अगर आप उदयपुर, चित्तौड़गढ़ और प्रतापगढ़ की यात्रा का प्लान बना रहे हैं तो यहां पर जरूर विजिट करें। यहां पर सुबह 10 बजे से लेकर शाम 6 बजे तक विजिट कर सकते हैं। यहां पर भारतीय वयस्कों को 20 रुपये और बच्चों का 10 रुपये टिकट लगता है। इसके अलावा दो से तीन घंटे के भीतर आप पूरी सेंचुरी को विजिट कर सकते हैं।
तीन तरह की पाई जाती है गिलहरी
आमतौर पर हमारे देश में तीन तरह की गिलहरी पाई जाती है। इन गिलहरियों में एक पांच धारीवाली, एक तीन धारीवाली एवं उड़न गिलहरी शामिल हैं। उड़न गिलहरी को रात्रिचर स्तनधारी कहा जाता है जो पेड़ों पर निवास करती है। इनका रंग भूरे कलर का होता है, जो पेड़ों की शाखाओं पर ग्लाइड करने में एक्सपर्ट मानी जाती है। इसे ज्यादातर दक्षिणी राजस्थान के जंगलों में देखा जाता है। यह गिलहरी की एक ऐसी प्रजाति है जो शाम होने पर बाहर निकलती है और सुबह होते ही वह पेड़ों से गायब हो जाती है।
1 मीटर से ज्यादा होती है इसकी लंबाई
भारत में पाई जाने वाली 15 प्रकार की उड़न गिलहरियों में से यह केवल इस राज्य में ही पाई जाती है। इसकी लंबाई की बात करें तो, यह लगभग 1040 सेंटीमीटर यानी 1 मीटर से भी अधिक होती है। वहीं, इसका सामान्य वजन 1 से 2 किलो तक होता है। वयस्क गिलहरी एक ऐसी प्रजाति है जिसके ऊपर का भाग क्लैरटी ब्राउन होता है। इसके पैराशूट और आगे की भुजाएं भूरे रंग की होती हैं।
राजस्थान के चार जिलों में है ज्यादा आबादी
इस गिलहरी की ज्यादातर आबादी राजस्थान के अलग अलग हिस्सों में पायी जाती है। दक्षिणी राजस्थान के चार जिलों उदयपुर, प्रतापगढ़, डूंगरपुर और बांसवाड़ा में इस प्रजाति की गिलहरी पाई जाती है। यह ज्यादातर महुआ के पेड़ों पर रहना पसंद करती है। इसके अलावा गिलहरी महुआ के साथ साथ बरगद और कदंब के पेड़ों की ऊंची शाखाओं पर भी आसानी से उछल कूद कर सकती है। प्रजनन काल में नर और मादा दोनों ही तने में बने हुए आवास में रहते हैं।
निशाचर माना जाता है यह जीव
यह एक निशाचर जीव माना जाता है, जो अपने कोटर से शाम 7 बजे के बाद बाहर आती है और सुबह 6 बजे से पहले ही अपने कोटर में लौट जाती है। रोशनी पड़ने पर यह बिना किसी हरकत के एक जगह पर बैठे रह जाती है। शिकारियों के भय से बचने के लिए यह घने पेड़ों की टहनियों में बैठकर आवाज निकालती है।