Rajasthan Desert: आज के इस लेख में हम बात करने जा रहे हैं राजस्थान के एक ऐसे जिले की जहां पानी की हर बूंद मानो सोने जितनी कीमती है। यूं तो आधुनिक परिवर्तनों ने यहां की स्थिति को काफी हद तक बेहतर किया है लेकिन इसके बावजूद भी लोग जीवित रहने के लिए पारंपरिक जल बचत विधियों पर निर्भर हैं।
बाड़मेर में पानी की कमी
दरअसल इस क्षेत्र में बारिश काफी कम होती है। जिस वजह से यहां पर अक्सर सूखा पड़ा रहता है। दरअसल यहां के कुओं में से भी पानी नहीं बल्कि तेल निकलता है। इसी वजह से कच्चे तेल उत्पादन में यह भारत को 25 प्रतिशत योगदान देता है। पहले यहां पर पीने के पानी को सुरक्षित रखने के लिए कुओं की रखवाली की जाती थी। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि पानी को घी से भी ज्यादा महंगा बताया जाता था।
रामसर का पार और सोनिया चैनल
पानी को संरक्षित करने के लिए रामसर का पार का निर्माण किया गया। दर्शन यह एक सामुदायिक तालाब है। यह 5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित रामसर पहाड़ियों से जुड़ा हुआ है। आपको बता दें की बारिश के दौरान पहाड़ियों से पानी रामसर गांव के पास एक खेत की ओर बहता था। अब क्योंकि जल निकासी के कोई अच्छे रास्ते नहीं थे तो इसका अधिकतर हिस्सा बर्बाद हो जाता था।
कुछ समय बाद गांव वालों ने एक बड़ा कदम उठाने की सोची। उन्होंने जल संग्रह बिंदु पर एक बड़ा तालाब को दिया। हालांकि अभी भी पूरा पानी तालाब तक नहीं पहुंच पा रहा था लेकिन गांव वालों ने हार नहीं मानी। उन्होंने समस्या को हल करने के लिए पत्थरों और मिट्टी का उपयोग करके एक ठोस जल चैनल बनाया। अब इस चैनल को सोनिया चैनल के नाम से जाना जाता है।
मनरेगा और पानी की टंकियां
2007 में मनरेगा योजना के साथ बाड़मेर में बदलाव शुरू हुए। सरकार ने पूरे जिले में पानी की टंकियों का निर्माण किया। इसके बाद से बाड़मेर में लगभग अब 1.68 लाख पानी की टंकी हैं। यह टंकियां 20 फीट गहरी और 10 फीट चौड़ी है। मानसून के दौरान इन टंकियां में बारिश के पानी को संग्रहित किया जाता है।
पारंपरिक स्रोतों में बदलाव
वर्तमान में बाड़मेर के कई हिस्सा में पाइपलाइन पहुंच गई है। इन पाइप लाइनों में दूसरे इलाकों से पानी आता है जिससे अब हाथों से पानी को इकट्ठा करने के निर्भरता कम हो गई है। इसी के साथ पारंपरिक जल स्रोत जैसे की बावड़ियां, तालाब और पुराने टैंकों का इस्तेमाल भी कम हुआ है।
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